'अल कौसर' के बाहर चहलकदमी करते हुए वह अब थोड़ा उकताने लगा था।
जानबूझकर समय नहीं देख रहा था। समय को वह भूल जाना चाहता था। वह भूल जाना चाहता था कि उसे यहाँ टहलते आधा घंटा हो चुका है।
...कि साढ़े सात बज चुके हैं और बात सात बजे मिलने की थी। न चाहते हुए भी अपनी घड़ी के नीचे डायल पर उसकी आँखें ठहर गईं।
अगर गुजरे बरस होते तो वह यह सोचता टहलता रहता कि वह एक बार फिर पीछे से धमधम करती आएगी और जब तक वह उन पैरों की आवाज को आँखों से सही करने पीछे मुड़ेगा, कहेगी -
'सॉरी राहुल! जैम में फँस गई थी। आय ऐम रियली सॉरी।'
और वह बड़े नाज से अपना गुस्सा वापस ले लेगा।
वक्त पीछे छूट गया था। वक्त पीछे छूटता जा रहा था और साथ में यह अहसास भी कि वह आएगी। बीते दिनों की यादें ही रह जाती हैं...
और कभी-कभी मिलने को पुराना रेस्तराँ।
उसे अपने इस खयाल पर हँसी आ गई। उसे ध्यान आया कि वह अक्सर सड़कों के किनारे पटरियों पर लोगों को इसी तरह हँसते, अपने-आप से बातें करते देखता है और सोचता है कहीं वे पागल तो नहीं है। उसने इधर-उधर देखा और आश्वस्त हुआ कि अँधेरे में उसे कोई देख नहीं रहा है।
वह बाहर पटरी पर एक फटा अखबार बिछाकर बैठ गया और सामने तेजी से भागती गाड़ियों के ब्रांड पहचानने का खेल खेलने लगा। बरसों पुराना खेल कि किस ब्रांड की गाड़ियाँ सड़क पर ज्यादा दिखती हैं। अक्सर ऊबकर वह यही खेल खेलने लगता। बरसों प्रतीक्षा ने उसे इस खेल का आदी बना दिया था।
सामने एक ऑटो आकर रुकी।
उसकी आँखों में बरसों पुरानी पहचान लौट आई थी। इतनी रोशनी नहीं थी कि किसी को आसानी से पहचाना जा सके। मगर उसे खुशी हुई कि उसने पहचान लिया था, ऑटो से लिच्छवि उतर रही थी। उसने यह भी पहचान लिया था कि उसने नीले बाँधनी का सूट पहन रखा था। उसे याद आया नीले रंग के कपड़ों में लिच्छवि उसे बहुत अच्छी लगती थी। वह 'अलकौसर' से छ्नकर आती नीली रोशनी में उठा और धीरे-धीरे ऑटो की ओर बढ़ने लगा।
'हाय!'
राहुल ने धीरे से कहा।
'ओ! हाय!'
लिच्छवि ने ऐसे चौंककर कहा मानो वह यहाँ उससे नहीं किसी और से मिलने आई हो और उसे वहाँ पाकर चौंक गई हो।
राहुल को थोड़ी-सी राहत इस बात से मिली कि वह अब भी उसकी आवाज पहचानता था। वही खनक और थोड़ा-सा लड़कपन लिए। हाँ, अब वह उतनी बेपरवाह नहीं लग रही थी। वह थोड़ा निराश हुआ कि उसकी मुस्कराहट में वह पहचान नहीं थी जो बरसों तक, पाँच बरस तक सिर्फ उसके लिए थी।
'मुझे लग रहा था कि तुम नहीं आओगी।' राहुल बोला।
'क्यों जब कहा था आऊँगी तब ऐसा क्यों लगा?'
राहुल ने महसूस किया लिच्छवि की आवाज में अब पहले वाली हड़बड़ाहट नहीं थी। अब वह काफी सधी हुई लगती थी।
'यों ही मुझे लगा शायद काम में फँस गई होगी।' राहुल बोला।
'काम तो था, लेकिन... ' लिच्छवि वाक्य अधूरा छोड़कर अपने बालों का रबड़ ठीक करने लगी।
राहुल कहना चाहता था कि तुम अब भी उतनी सुंदर लगती हो और तुम ठीक कहती थीं हल्का काजल लगा लेने से तुम्हारी आँखें और भी ज्यादा सुंदर लगने लगती हैं - एकदम काले पके अंगूर-सी बाहर को निकलती। पर उसने कहा नहीं। दूरियों के लंबे बरसों की दीवार बीच में आ गई थी। उसे याद आया वह सब कहने के लिए तो लिच्छवि से मिलने नहीं आया था। उसे तो एक काम की बात करनी थी।
इतने बरसों में राहुल एक 'प्रोफेशनल राइटर' बन चुका है। अपने विजिटिंग कार्ड पर यही लिखता। अखबारों में लिखने से लेकर रेडियो-टेलीविजन के छोटे-मोटे कार्यक्रम लिखने वाला राहुल शर्मा बन चुका है। चैट शो, गेम शो, काउंटडाउन शो लिखने वाला राहुल शर्मा।
शो-बिजनेस के छोटे-मझोले निर्माता उसका नाम जानते थे। उसका फोन नंबर, पेजर नंबर अपनी डायरी में लिखकर रखने लगे थे। इन दिनों वह एक 'फिक्शन' यानी धारावाहिक की तलाश में था। हर प्रोफेशनल राइटर की असली मंजिल। वह एक 'सफल लेखक' का लेबल लगाना चाहता था अपने ऊपर। अपना एक 'ब्रांड नेम' बनाना चाहता था - राहुल शर्मा।
'लिच्छवि' एक 'टेलीविजन एंकर' बन चुकी थी। लेकिन चैनलों की बढ़ती भीड़ में वह जिस चैनल की एंकर पर्सन थी, उस पर बहुत कम दर्शकों का रिमोट ठहरता था।
वह एक अखबार में हाई सोसायटी पार्टियों पर कॉलम लिखती थी। हालाँकि अंग्रेजी के जिस अखबार में लिच्छवि का कॉलम छपता था, वह अखबार भी ज्यादा नहीं पढ़ा जाता था।
पर कम-से-कम राहुल तो उसे पढ़ता ही था। हर इतवार की सुबह वह उस कॉलम को पढ़ता और कई कारणों से उदास हो जाता। एक यह कि वह कभी लिच्छवि के साथ किसी पार्टी में नहीं गया। तब वे दोनों पार्टियों में जाते भी कहाँ थे।
शायद इस कारण भी कि लिच्छवि ऐसी पार्टियों में जाने लगी थी जहाँ जाने का सौभाग्य राहुल को अब तक नहीं मिला था।
...और थोड़ा इसीलिए भी शायद कि भले ही लिच्छवि 'सेलिब्रिटी' नहीं बन पाई हो अब तक, पर पैसा तो अच्छा कमा ही रही थी।
जिंदगी की दौड़ में वह उससे इतना आगे निकल चुकी थी कि आज उसे अपनी जिंदगी की गाड़ी पटरी पर लाने के लिए उसकी जरूरत आ पड़ी थी। शायद उसे भरोसा था लिच्छवि पर - अपने बीते प्यार पर।
उसी की बरसों पुरानी डोर थामकर उसने लिच्छवि को आज 'अल कौसर' में डिनर के लिए बुलाया था।
'अल कौसर तुम्हारी फेवरिट जगह थी... याद है!' राहुल बातों को पीछे ले जाना चाह रहा था।
'हाँ! पर अब तो टाइम ही नहीं मिलता यहाँ आने का। पर यहाँ-वहाँ पार्टियों में यहाँ के काकोरी कबाब मिल जाते हैं। वैसे भी यहाँ आना अब 'इनथिंग' नहीं रह गया है...।' लिच्छवि ऐसे कह रही थी जैसे उसे किसी जगह न बुलाया गया हो।
राहुल को लगा जैसे लिच्छवि उसे छोटा दिखाने के लिए ही ऐसा कह रही है। उसे लगा जैसे उसने लिच्छवि से मिलकर कोई गलती कर दी हो। पर एक उम्मीद थी जिसकी लौ के सहारे वह उससे मिलने आया था।
'इधर सुना, तुम्हारा टॉक शो बहुत पॉपुलर हो गया है। मैं देख तो नहीं पाता पर पीछे कहीं अखबार में पढ़ा था। वैसे 'मॉर्निंग इको' में तुम्हारा कॉलम पढ़ता रहता हूँ। अच्छा लिखने लगी हो।'
राहुल को बातचीत का एक सिरा पकड़ना चाहता था। एक ऐसा सिरा जिसके सहारे बीच का ठंडापन खत्म हो सके।
'हाँ, देख तो मैं खुद भी नहीं पाती हूँ। टाइम ही नहीं मिलता... कॉलम तो वैसे ही है - टाइमपास। थोड़ी-सी गॉसिप हो जाती है - ठीक-ठाक पैसे मिल जाते हैं। वैसे इन दिनों मैं एक नॉवेल लिख रही हूँ दिल्ली के सोशलाइट लाइफ स्टाइल के बैकड्रॉप में लव स्टोरी होगी। रविदयाल से बातचीत चल रही है...
'और तुम्हारी कोई खबर ही नहीं मिलती। बीच में सुना था कबीर के लिए चंडीगढ़ पर कोई डॉक्यूमेंट्री लिखी थी तुमने। इन फैक्ट वह खुद ही बता रहा था... कह रहा था ठीक ठाक लिखता है। पर तुम तो जानते ही हो मेरी हिंदी का हाल... अब तो और बुरी हो गई है...'
बात का कोई भी सिरा राहुल के हाथ नहीं आ पा रहा था। लग रहा था कि लिच्छवि की आवाज किसी और दुनिया से आ रही हो, जिसे समझने का कोड उसकी दुनिया में था ही नहीं। यह अहसास और बढ़ता जा रहा था कि वह वाकई इस दुनिया में पीछे छूट गया है... राहुल कुछ नहीं बोला... चुपचाप अलकौसर का दरवाजा खोलकर अंदर घुस गया और लिच्छवि के आने की प्रतीक्षा करने लगा।
'कोने वाली टेबल खाली नहीं है। याद है तुम्हें, उस टेबल के खाली होने की हम कितनी-कितनी देर प्रतीक्षा करते थे।' राहुल धीरे-धीरे खोई आवाज में बोल रहा था।
'ओ हाँ! कहीं और बैठ जाते हैं। मुझे जल्दी जाना है। काबुकी स्टुडियो में रिकॉर्डिंग है ...' राहुल ने महसूस किया लिच्छवि थोड़ी बेचैन हो गई थी।
लिच्छवि उस दुनिया में नहीं लौटना चाहती थी। राहुल बार-बार अपनी स्मृतियों की उस दुनिया को लौटना चाह रहा था। लिच्छवि और अपनी साझी स्मृतियों की दुनिया... पर लग रहा था लिच्छवि की स्मृतियों में वह दुनिया में वह दुनिया थी ही नहीं।
दोनों बीच की एक खाली टेबल पर बैठ गए।
'दो काकोरी कबाब और... तुम अब भी सिर्फ कोक ही पीती हो या...' राहुल ऑर्डर देते-देते थोड़ा रुक गया।
'मैं कुछ भी लेती हूँ। वैसे डिनर पर तुमने बुलाया है... जो भी पिलाओगे पी लूँगी।' लिच्छवि मुस्कराते हुए बोली।
राहुल ने लिच्छवि की आवाज में पहली बार ऐसा कुछ पाया जो उसे अपना लगा। उसे लगा कि यह सही मौका है जब अपनी बात शुरू कर देनी चाहिए।
पिछले हफ्ते उसने अखबार में युवा निर्देशक सुकांत के साथ एक डांस पार्टी में लिच्छवि की तस्वीर देखी थी। उसी अखबार में सुकांत का इंटरव्यू भी छपा था जिसमें उसने अपने अगले 'डेली सोप' के बारे में बताया था। उसने कहा था उसे लेखकों की नई टीम की तलाश है।
उसे उम्मीद थी अगर वह लिच्छवि को सुकांत से मिलवाए जाने की बात करे तो शायद उसके कैरियर को एक नया मोड़ मिल जाए। लिच्छवि अगर उसकी मदद करे तो वह अपना कैरियर ग्राफ बदल सकता है।
'पिछले हफ्ते मैंने सुकांत के साथ तुम्हारी तस्वीर देखी थी।' राहुल काकोरी कबाब के टुकड़े को कोक के साथ निगलते हुए बोला।
'ओ यस! ही इज ए गुड फ्रेंड ऑफ माइन। दरअसल, उसी ने मुझे सिखाया था कि इस माध्यम में अगर बड़ा बनना है तो ब्लैक एंड व्हाइट को ब्लैक एंड व्हाइट नहीं मोनोक्रोम कहना चाहिए।'
राहुल ने नोट किया, वह अब भी पहले की तरह जल्दी-जल्दी खाती है।
'असल में बात यह है कि सुकांत एक नया डेली सोप बना रहा है और उसे कुछ नए राइटर चाहिए। तुम अगर...' राहुल कह तो लिच्छवि से कह रहा था पर देख ऐसे रहा था जैसे अपनी अनुगूँज से कह रहा हो।
'तो इसीलिए तुमने मुझे यहाँ बुलाया था... देखो राहुल, मैं तुम्हें प्रोफेशनली तो जानती नहीं हूँ... और तुम जानते हो इस मीडियम में... एनी वे... तुम्हें एक काम करना होगा। मैं तुम्हें उसका फोन नंबर देती हूँ। उसकी बीवी को ये पसंद नहीं कि मैं उसके घर फोन करूँ। फोन वह मुझे खुद ही करता है। तुम फोन करके उसे यहाँ बुला लो... कहना मैं बैठी हूँ। चाहो तो कह सकते हो - मैं उसका इंतजार कर रही हूँ... आय ऐम वेटिंग फॉर हिम...'
राहुल ने महसूस किया लिच्छवि की आवाज में अपने 'कुछ होने' का अहसास बढ़ गया है।
राहुल पहली बार इस मुलाकात पर शर्मिंदा महसूस कर रहा था। जैसे लग रहा था सफलता की इच्छा ने उसे आज भिखमंगा बना दिया हो। बातचीत इसी मोड़ पर खत्म की जा सकती थी। पर इससे नुकसान तो उसका ही होता न। या तो वह अपना स्वाभिमान बचा सकता था या अपना कैरियर। बरसों की असफलताओं से वह जान गया था कि उसके स्वाभिमान में बचाने लायक कुछ बचा नहीं है।
'पता है जब तुम्हारी याद आती है मैं क्या करता हूँ?' राहुल बातों को कोई मोड़ देना चाह रहा था।
'क्या?' लिच्छवि ने पहली बार राहुल की आँखों में आँखें डालते हुए पूछा।
'मैं खूब मिठाई खाने लगता हूँ। ...तुम्हें मिठाई खाना बहुत अच्छा लगता था न।' राहुल ने लिच्छवि की आँखों से अपनी आँखें बचाते हुए कहा।
'मिठाई तो मैं अब पचा भी नहीं पाती। बहुत फैटी होती है। खैर... तुम सुकांत का नंबर नोट करो... इट्स 5142773...'
राहुल को लगा इस प्यार के खेल को अपने बरसों पुराने झोले में वापस डाल देना चाहिए। अपने-आपको और गिराने से बेहतर है कि जल्दी से काम निपटाकर लिच्छवि से विदा ले।
राहुल चुपचाप उठा और रिसेप्शन से फोन करने लगा।
'उसने कहा है वह पाँच मिनट में आ रहा है' राहुल ने लौटकर बताया।
'बिल आ गया है, पैसे हैं या दूँ?' लिच्छवि ने राहुल से पूछा।
'डिनर पर मैंने तुम्हें बुलाया था...' राहुल पर्स से पैसे निकालने लगा।
लिच्छवि उठकर बाहर चली गई थी। राहुल भी पीछे-पीछे आ गया।
'तुम्हारे घर का फोन नंबर...' राहुल ने वक्त काटने के लिए लिच्छवि से पूछा।
लिच्छवि कुछ देर चुपचाप देखती रही। अपनी बार-बार देखी आँखों में अनजानापन लिए।
'पापा के नहीं रहने के बाद मम्मी आजकल मेरे साथ ही रहती हैं। उन्हें तुम्हारा फोन करना अच्छा नहीं लगेगा। वह आज भी मेरे बहक जाने का जिम्मेदार तुम्हें मानती हैं। मेरे इस कैरियर का...' लिच्छवि अपनी सधी हुई एंकर पर्सन वाली आवाज में बोल रही थी।
'ओह! आय ऐम सॉरी... खैर... तुम्हारे ऑफिस का नंबर तो है ही।' राहुल ने इस प्रसंग को समाप्त करते हुए कहा।
सामने एक काली सिएलो कार रुकी। राहुल ने महसूस किया लिच्छवि की आँखों में किसी की पहचान चमकने लगी थी। वह तेजी से कार की ओर बढ़ गई।
'सुकांत, ये राहुल शर्मा हैं। कॉलेज में मेरे सीनियर थे। कबीर की चंडीगढ़ वाली डॉक्यूमेंट्री इन्होंने ही लिखी है...' लिच्छवि सुकांत से राहुल का परिचय करवा रही थी!
'ओ नाइस मीटिंग यू। सुना था किसी से आपके बारे में। आप कल-परसों फोन करके मेरे पास आ जाइए... गल्लाँ-सल्लाँ करते हैं...' सुकांत ने राहुल से हाथ मिलाते हुए कहा।
राहुल को लगा अब वहाँ 'फालतू' बने रहना अच्छा नहीं। विदा लेनी चाहिए। उन्हें और भी बातें करनी होंगी।
'अच्छा मैं चलता हूँ...' राहुल ने लिच्छवि से कहा और सुकांत की ओर देखते हुए बोला, 'मैं कल दोपहर में आपको फोन करूँगा।'
'ओह श्योर' सुकांत तपाक से बोला। राहुल पीछे मुड़ चुका था।
'फोन करना... कीप इन टच', उसने सुना। लिच्छवि की आवाज थी।
वह कुछ नहीं बोला। बस पीछे मुड़कर एक बार लिच्छवि को देखा, हाथ मिलाया और वापस मुड़कर तेजी से चलने लगा... वैसे ही जैसे बरसों पहले आखिरी बार वह लिच्छवि से जुदा हुआ था।
आगे अँधेरी सड़क थी, जिस पर गाड़ियों की जलती-बुझती भागती रोशनी न जाने क्यों उसे अपने गाँव की पगडंडियों की याद दिला रही थी जो रात में जुगनुओं की जगर-मगर से भर जाती थी।
वह दूर अँधेरे में गुम हो रहा था।
'कोई पुराना चक्कर!' सुकांत ने गाड़ी का पावर विंडो बंद करते हुए पूछा।
'बताया न मेरा सीनियर था कॉलेज में... अंड ही वाज आल्वेज वेरी नाइस टू मी... वेरी हेल्पफुल - अंड आई थिंक बदले में मुझे उसके लिए कुछ करना चाहिए...' लिच्छवि गाड़ी का एसी ऑन कर चुकी थी।
'शुक्र है तुम्हें इतना तो याद है कि तुम्हें किसके लिए कितना क्या करना है...' सुकांत गाड़ी स्टार्ट करते हुए बोला।
दोनों हँसने लगे। लिच्छवि वही जोरदार हँसी हँस रही थी जिसकी अनुगूँज राहुल की स्मृतियों में अभी बाकी थी। जो इस समय सड़क पर चलते-चलते यही सोच रहा था शायद वैसी ही हँसी हँस रही होगी।
लिच्छवि और सुकांत की गाड़ी तेजी से उसके बगल से गुजर गई।